Heat Wave: देश के अधिकतर राज्यों में भीषण गर्मी कहर बरपा रही है। चिलचिलाती धूप और गर्मी को दखते हुए कई राज्यों में Heat Wave Alert जारी कर दिया है। उत्तर भारत में प्रचंड गर्मी पड़ रही है। पिछले एक सप्ताह से राजस्थान के कई इलाकों में तापमान 48 डिग्री के ऊपर दर्ज किया गया। वहीं, मौसम विभाग के मुताबिक, राजस्थान में 25 मई से 2 जून तक तापमान 50 डिग्री के आसपास रहने की उम्मीद है। इसी बीच कई लोग ये जानना चाहते हैं कि ये तापमान किस आधार पर मापा जाता है। आज हम आपके लिए लाए हैं गर्मी के तापमान को मापने के बारे में खास जानकारी-
जानकारों के मुताबिक, गर्मी या सर्दी को उस दिन के तापमान के आधार पर मापा जाता है, जिसे ड्राई बल्ब टेम्परेचर (Dry Bulb Temperature) भी कहते हैं। इसमें हवा में मौजूद नमी या ह्यूमिडिटी को नहीं मापा जाता है, जबकि तापमान के साथ ह्यूमिडिटी का होना इंसानों के लिए ज्यादा घातक साबित होता है। बता दें, टेम्परेचर और ह्यूमिडिटी के इस कॉम्बिनेशन को मापने के लिए ‘Wet bulb temperature’ का इस्तेमाल होता है।
इसको समझने के लिए सबसे पहले हमें कूलिंग सिस्टम को समझना होगा। क्या होता है कूलिंग सिस्टिम-
डॉक्टरों के मुताबिक, एक स्वस्थ इंसान के शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस होता है। शरीर को ये तापमान प्राकृतिक रूप मिला है। हम इस तापमान को मेंटेन करके रखते हैं, जब भी मनुष्य के शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाता है तो मनुष्य को ठंड लगती है। इसी तरह से जब ये तापमान ऊपर जाता है तो गर्मी लगती है, जब गर्मी लगती है तो शरीर के तापमान को मेंटेन करने के लिए शरीर से पसीना निकलता है। ये एक कुदरती तरीका है, जिससे शरीर का तापमान मेंटेन होता है। डॉक्टर बताते हैं कि जब शरीब का तापमान बढ़ने से शरीर की पसीने की ग्रंथियां एक्टिव हो जाती हैं। इससे हमें ज्यादा पसीना आता है और पसीने के सूखने पर शरीर ठंडा रहता है। इस तरह से पसीना आना अपने आप में शरीर का कूलिंग सिस्टम है।
जानकारों का मानना है कि वातावरण में तापमान के बढ़ने या घटने से शरीर के तापमान पर कुछ फर्क नहीं पड़ता है। हमारे शरीर में करीब 60% से 70% पानी होता है।
कूलिंग प्रोसेस पर भी पड़ता है असर
ड्राई हीट जैसे हालात में हमारे शरीर पर असर दिखने लगता है क्योंकि हमारी बॉडी से निकलने वाला पसीना आसानी से सूख जाता है। लेकिन ह्यूमिड हीट के समय हमारी स्किन पर मौजूद पसीना सूख नहीं पाता है। ऐसे हालात में हमारी बॉडी स्किन को ठंडा रखने के लिए ज्यादा पसीना बाहर निकालती है। इस तरह के वातावरण में लंबे समय तक रहने पर बॉडी से पसीने के रूप में सोडियम और जरूरी मिनरल्स शरीर से बाहर निकल जाते हैं, जब शरीर से जरूरी मिनरल्स बाहर निकलते हैं तो इसका असर सीधा हमारी किडनी और हार्ट पर होता है। कई बार ये हालात बहुत ज्यादा खतरनाक हो जाते हैं। डॉक्टरों का मानना है कि ऐसे हालात पर अगर जल्दी से काबू नहीं पाया जाता है तो जान भी जा सकती है।
यहीं से वेट बल्ब टेम्परेचर की एंट्री होती है। आइए, अब समझते हैं वेट बल्ब टेम्परेचर को। वेट बल्ब टेम्परेचर क्या होता है और ये कैसे काम करता है?
इस वक्त देश के कई इलाकों में खूब गर्मी पड़ रही है। गर्मी के लिए हम दिन के तापमान को देखते हैं। लेकिन हवा में मौजूद नमी या ह्यूमिडिटी को नहीं मापा जाता है। जैसे ही हम सब जानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है, लेकिन गर्मी के साथ ह्यूमिडिटी भी बढ़ रही है। वेट बल्ब टेम्परेचर में गर्मी के साथ ह्यूमिडिटी भी शामिल है।
Wet bulb का नाम इसी को मापने के लिए किया जाता है। इस मापने बिल्कुल आसान है। इसको मापने के लिए एक गीले कपड़े को थर्मामीटर बल्ब के ऊपर लपेटा जाता है और बाद में हवा चलाई जाती है। चूंकि, थर्मामीटर का बल्ब एक तापमान तक गर्म है तो ऊपर से निकली हवा उस तापमान को कुछ हद तक कम कर देती है। गीले कपड़े के ऊपर से निकली हवा से थर्मामीटर पर जितना तापमान कम होगा, उसे ही Wet bulb temperature कहा जाता है, लेकिन इस कुछ बातें ध्यान में रखने वाली भी होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब वातावरण का Wet bulb temperature कम होता है तो इसका मतलब है हवा गर्म है और वाष्पीकरण यानी पानी सोखने की क्षमता ज्यादा है। वहीं वेट बल्ब तापमान के ज्यादा होने का मतलब हवा में ह्यूमिडिटी ज्यादा है।
तटीय राज्यों में ह्यूमिडिटी का प्रकोप अधिक
भारत के तटीय राज्यों में वेट बल्ब तापमान ज्यादा होता है। पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों में घातक ह्यूमिड हीटवेव चलती है, जिसके कारण यहां के लोगों का शरीर से निकलने वाला पसीना सूख नहीं पाता है और इससे उमस या बेचैनी होने लगती है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक, भारत में हर साल 12 से 66 दिन ऐसे होते हैं, जब भीषण गर्मी और ह्यूमिडिटी होती है, लेकिन तटीय क्षेत्रों जैसे कोलकाता, कटक और सुंदरबन में इन दिनों की संख्या बढ़कर 35 से 200 तक हो जाती है।