क्या खुल गई एक और सियासी दुकान? कैसे जनाधार की खातिर मिल गया ब्लैकमेलिंग का लाइसेंस?, स्वामी की नई पार्टी अगर BJP के लिए है शुभ संकेत, तो क्या वाकई सपा, कांग्रेस, बसपा जैसे दलों का खेल बिगाड़ेंगे स्वामी प्रसाद मौर्य? क्यों स्वामी प्रसाद जैसे लोग खुद को बताते हैं नेता?
आज बात लोकसभा चुनाव से ठीक पहले, शोषितों, वंचितों, दलितों के सहारे जनता के बीच नई पार्टी लेकर आए स्वामी प्रसाद मौर्य की, उनकी विचारधारा की और उस विचारधारा से जुड़े कथित जनाधार से 2024 की सियासत पर पड़ने वाले असर की करेंगे। स्वामी प्रसाद की फितरत और उनसे जुड़े जनाधार पर बात करेंगे। लेकिन उससे पहले समझ लेते हैं स्वामी प्रसाद मौर्य की सियासत आखिर है क्या ?
अपने सनातन विरोधी लक्ष्य को जनता के चुनावी मुद्दों में ढालकर, जनता के बीच पहुंचे स्वामी प्रसाद, अभी-अभी कुछ रोज पहले ही साइकिल से उतरे हैं और उन्हें अब उन अखिलेश का मनुवादी व्यक्तित्व नज़र आ गया है, जिन अखिलेश यादव ने उन्हें उस वक्त पार्टी में जगह दी थी, जब वो BJP के अंदर अपनी प्रतिष्ठा को ना सिर्फ खो चुके थे, बल्कि BJP के खेमे में दूसरी पंक्ति के नेताओं की नुमाइंदगी करते नज़र आ रहे थे। स्वामी की मौकापरस्ती से जुड़ी सियासत किसी एक दल या किसी एक दल के नेताओं के आदर्शों पर टिकी नहीं है। स्वामी का सीधा सा एजेंडा है अगर अपना काम है बनता, तो क्यों न हाशिए पर ही चली जाए वो जनता। जिसने स्वामी प्रसाद मौर्य को एक नेता बनाया, पद दिया, प्रतिष्ठा दी, शोहरत दी और उस शोहरत से जुड़ी वो मलाई भी दी, जिसकी खातिर वक्त-वक्त पर वो सियासी दलदल में फंसकर भी खुद को दलितों,वंचितों का सर्वमान्य नेता करार देने के संकेत देते हुए थकते नज़र नहीं आते हैं। ऐसे में नई पार्टी के ऐलान के बाद स्वामी नए-नए दावों, बड़े-बड़े वादों के ज़रिए बड़ी बड़ी क्रांतिकारी बातों का तिलिस्म बुन रहे हैं। ताकि जनता के हितों से जुड़े मसलों की बिसात पर खुद के लिए मोर्चाबंदी कर सकें।
स्वामी प्रसाद खुद को एक बड़े वर्ग का नेता मानते हैं और ये जताने से भी परहेज नहीं करते कि उनका उस PDA में बड़ा दखल है, जिसके सहारे अखिलेश यादव लखनऊ से दिल्ली तक का सफर तय करना चाहते हैं। अखिलेश की माने तो PDA यानी पिछड़ा दलित अगड़ा या अल्पसंख्यक का कुल वोटबैंक, यूपी के निर्धारित कुल वोटबैंक का निर्णायक हिस्सा है। जो काफी हद तक BJP की नीतियों से खफा है। ऐसे में स्वामी को अंदरखाने लगा कि यही सही वक्त है अपना कद बढ़ाने का और उन्होंने नई पार्टी का ऐलान कर लिया। मगर सवाल यही है कि ये नई पार्टी है किस लिए? क्या स्वामी की नई पार्टी जनता से सीधे उनका कनेक्शन स्थापित कर देगी ? अगर ऐसा मुमकिन है तो करीब करीब 30 साल का स्वामी का सियासी संघर्ष क्या फिजूल ही था। या फिर उन्हें 30 साल से ज्यादा का वक्त लग गया।
सपा स्वामी पर हमलावर है तो वहीं दूसरी तरफ BJP स्वामी को चुनौती मानना तो दूर की बात है, उस पर रणनीति बनाने के लिए मंथन करने को वक्त की बर्बादी ही मान रही है। दरअसल स्वामी का नई पार्टी बनाना, किसी भी मायने में BJP के लिए मुश्किलें पैदा नहीं करेगा। बल्कि सच तो ये है कि आंकड़ों पर आधारित दलितों-वंचितों का जो वोट बैंक अभी तक BJP से छिंटककर, बसपा, सपा, कांग्रेस में बंटता था, उस वोट बैंक का ज्यादा से ज्यादा एक हिस्सा स्वामी की नई पार्टी के साथ चला जाएगा। ऐसा होना वैसे तो मुमकिन नहीं दिखता क्योंकि यूपी में दलितों का अगर कोई सर्वमान्य नेता हैं या फिर दलितों को किसी एक शख्सियत पर भरोसा है तो वो BSP सुप्रीमो मायावती हैं। भले ही वो सियासी तौर पर अभी उतना सक्रिय ना हों जितना पहले हुआ करतीं थीं, मगर उनका दबदबा काफी हद तक बाकी दलों की तुलना में कायम है।
तो बात साफ है कि स्वामी की नई पार्टी BJP के लिए शुभ संकेत ही है। क्योंकि स्वामी अगर यूपी की 80 की 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ते हैं, तो उनकी पार्टी वोटकटवा पार्टी के तौर पर पहचान बनाएगी। और जिन सीटों पर BJP और अन्य दलों के नेताओं के बीच में क्लोज़ फाइट हो रही होगी। वहां पर स्वामी, अन्य दलों के दलित वोटबैंक में सेंधमारी कर BJP के खेमे के लिए निर्णायक भूमिका अदा करते नज़र आ सकते हैं। क्योंकि राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक, कानून व्यवस्था से जुड़े तमाम मसलों पर BJP ने काम कर, वो जनाधार तलाश लिया है, जो जातिगत समीकरणों में सेंधमारी करने के लिए काफी है।
बहरहाल स्वामी चुनाव से पहले ये जो सियासी करतब दिखा रहे हैं उनके लिए कोई नई बात नहीं है। क्योंकि यूपी के लोगों ने देखा है कि कैसे जनता दल के सहारे 80 के दशक के अंत और 90 दशक की शुरुआत में सियासत का ककहेरा सीखने वाले स्वामी कभी हाथी पर सवार हुए थे, तो कभी कमल को थामने के लिए हाथी से छलांग मारकर, मायावती को ही आंख दिखाते नज़र आए थे। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि स्वामी प्रसाद मौर्य का सियासी व्यक्तित्व भारत की विविधता में अनेकता की निशानी का जीता जागता उदाहरण है।
माना जाता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने जनता दल में रहते हुए ही सियासत सीखी थी और फिर 1996 में जनता दल छोड़कर तत्कालिक कांशीराम के आदर्शों पर चलने वाली बहुजन समाज पार्टी यानी BSP में अपनी जगह बनाई, और ये बात भी सही है कि BSP ही वो दल है जिसने स्वामी प्रसाद मौर्य को असली पहचान दिलाई। मगर जब 2012 में UP विधानसभा में करारी हार और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में BSP के दिन ढलते दिखाई दिए तो UP के 2017 विधानसभा चुनाव से पहले ही साल 2016 में स्वामी प्रसाद मौर्य BJP के साथ हो लिए क्योंकि तब स्वामी प्रसाद मौर्य को उम्मीद थी कि 2017 में प्रदेश में कमल खिलने पर,उनका करियर भी खिल जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ कुछ भी नहीं। क्योंकि BJP में खुद ही ज़मीन से जुड़े नेताओं का एक ऐसा जमघट है कि बाहर से आए हुए नेताओं को पार्टी के अंदर पद और प्रतिष्ठा पाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। स्वामी प्रसाद के साथ भी ऐसा ही हुआ। और वो BJP में रहते हुए हाशिए पर चले गए। भले ही उन्हें योगी कैबिनेट में जगह दी गई हो लेकिन स्वामी प्रसाद को दबदबा पार्टी और सरकार में वैसा नहीं रहा, जिसकी वो उम्मीद करते थे। मगर कहानी यहीं खत्म कहां होने वाली थी।
स्वामी सपा में रहते हुए लगातार सनातन विरोधी एजेंडे पर चलकर, ऐसी सियासत को गढ़ने की कोशिश में लगे रहे, जिसकी शुरुआत में तो सपा को भी जनता के बीच, यानी उस वोटबैंक के बीच कुछ अटेंशन मिली, जिस पर स्वामी प्रसाद अपना दावा करते आए हैं। लेकिन जब स्वामी ने हद ही पार कर दी और अपनी विचारधारा के नाम पर किसी धर्म विशेष को बदनाम करने को ही अपना सियासी लक्ष्य मान लिया, तो अखिलेश ने भी देर से ही सही स्वामी को उनकी हद दिखा दी और फिर स्वामी को छोड़नी ही पड़ गई साइकिल और स्वामी प्रसाद मौर्य ने थाम लिया राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी का झंडा। लेकिन सवाल बरकरार है कि सियासत का ये नया झंडा स्वामी के सपनों को क्या सच में वही उड़ान दे पाएगा जिसके वो पिछले तीन दशक से ख्वाब देख रहे हैं ?